न्यायाधीश आंख बंद करके नियमों को लागू नहीं कर सकते, क्योंकि संघर्षों का एक मानवीय चेहरा होता है – CJI N V Raman

सुप्रीमकोर्ट आफ इंडिया के चीफ जस्टिस एन वी रमण ने शनिवार को कहा कि न्यायाधीश आंख बंद करके नियमों को लागू नहीं कर सकते, क्योंकि संघर्षों का एक मानवीय चेहरा होता है और कोई भी निर्णय देने से पहले, उनके सामाजिक-आर्थिक कारकों और समाज पर अपने फैसले के प्रभाव को तौलना होगा।

चीफ जस्टिस रमण ने मद्रास हाई कोर्ट के एक कार्यक्रम को संबोधित करते हुए कहा, ‘इन्सटैंट नूडल्स’ के इस दौर में लोगों को तुरंत इंसाफ की उम्मीद होती है, लेकिन उन्हें इस बात का अहसास नहीं है कि अगर  हम तत्काल न्याय का प्रयास करते हैं तो वास्तविक न्याय को नुकसान होगा।’ संकट के समय लोगों ने न्यायपालिका की ओर देखा और उनका दृढ़ विश्वास है कि उनके अधिकारों की रक्षा अदालतें करेंगी।

उन्होंने कहा, ‘यह विचार करना जरूरी है कि न्यायपालिका के कामकाज में सुधार कैसे हो, आम आदमी तक कैसे पहुंचा जाए और कैसे उनकी न्याय की जरूरतें पूरी की जाएं।’ अदालतों में इस्तेमाल की जाने वाली भाषा के मसले पर प्रधान न्यायाधीश ने कहा कि एक आम नागरिक अदालतों की प्रथाओं, प्रक्रियाओं और भाषा से जुड़ नहीं पाता है। इसलिए, आम जनता को न्याय प्रदान करने की प्रक्रिया का सक्रिय हिस्सा बनाने के प्रयास होने चाहिए।

पक्षकारों को घटनाक्रमों को समझना चाहिए

उन्होंने कहा, ‘पक्षकारों को अपने मामले की प्रक्रिया और घटनाक्रमों को समझना चाहिए। यह एक शादी में मंत्रों का जाप करने जैसा नहीं होना चाहिए, जिसे हममें से ज्यादातर लोग नहीं समझते हैं।’ उन्होंने कहा कि प्रधान न्यायाधीश के रूप में अपने पिछले एक साल के कार्यकाल के दौरान वह देश की कानूनी व्यवस्था को प्रभावित करने वाले विभिन्न मुद्दों को उजागर करते रहे हैं।

उन्होंने कहा, ‘आजकल न्यायपालिका सहित सभी संस्थानों को प्रभावित करने वाला सबसे बड़ा मुद्दा जनता की आंखों में निरंतर विश्वास सुनिश्चित करना है। न्यायपालिका को कानून का शासन बनाए रखने और कार्यपालिका और विधायी ज्यादतियों की जांच करने की अत्यधिक संवैधानिक जिम्मेदारी सौंपी गई है।’ जस्टिस रमण ने कहा, ‘न्याय देना न केवल एक संवैधानिक, बल्कि सामाजिक कर्तव्य भी है। संघर्ष किसी भी समाज के लिए अपरिहार्य है, लेकिन संघर्ष का रचनात्मक समाधान सामाजिक व्यवस्था को बनाए रखने के लिए अनिवार्य है।’

विधियों को आंख बंद करके लागू नहीं कर सकते हैं

उन्होंने कहा, ‘रचनात्मक संघर्ष समाधान केवल एक तकनीकी कार्य नहीं है। विशेष रूप से भारत जैसे देश में, न्यायाधीश नियमों, प्रक्रियाओं और विधियों को आंख बंद करके लागू नहीं कर सकते हैं। आखिरकार, संघर्षों का एक मानवीय चेहरा होता है। हम न्याय प्रदान करने के अपने कर्तव्य के बारे में लगातार जागरूक हैं।

सुप्रीम कोर्ट के चीफ जस्टिस एन वी रमण ने शनिवार को कहा कि न्यायाधीश आंख बंद करके नियमों को लागू नहीं कर सकते, क्योंकि संघर्षों का एक मानवीय चेहरा होता है और कोई भी निर्णय देने से पहले, उनके सामाजिक-आर्थिक कारकों और समाज पर अपने फैसले के प्रभाव को तौलना होगा।

चीफ जस्टिस रमण ने मद्रास हाई कोर्ट के एक कार्यक्रम को संबोधित करते हुए कहा, ‘इन्सटैंट नूडल्स’ के इस दौर में लोगों को तुरंत इंसाफ की उम्मीद होती है, लेकिन उन्हें इस बात का अहसास नहीं है कि अगर  हम तत्काल न्याय का प्रयास करते हैं तो वास्तविक न्याय को नुकसान होगा।’ संकट के समय लोगों ने न्यायपालिका की ओर देखा और उनका दृढ़ विश्वास है कि उनके अधिकारों की रक्षा अदालतें करेंगी।

उन्होंने कहा, ‘यह विचार करना जरूरी है कि न्यायपालिका के कामकाज में सुधार कैसे हो, आम आदमी तक कैसे पहुंचा जाए और कैसे उनकी न्याय की जरूरतें पूरी की जाएं।’ अदालतों में इस्तेमाल की जाने वाली भाषा के मसले पर प्रधान न्यायाधीश ने कहा कि एक आम नागरिक अदालतों की प्रथाओं, प्रक्रियाओं और भाषा से जुड़ नहीं पाता है। इसलिए, आम जनता को न्याय प्रदान करने की प्रक्रिया का सक्रिय हिस्सा बनाने के प्रयास होने चाहिए।

पक्षकारों को घटनाक्रमों को समझना चाहिए

उन्होंने कहा, ‘पक्षकारों को अपने मामले की प्रक्रिया और घटनाक्रमों को समझना चाहिए। यह एक शादी में मंत्रों का जाप करने जैसा नहीं होना चाहिए, जिसे हममें से ज्यादातर लोग नहीं समझते हैं।’ उन्होंने कहा कि प्रधान न्यायाधीश के रूप में अपने पिछले एक साल के कार्यकाल के दौरान वह देश की कानूनी व्यवस्था को प्रभावित करने वाले विभिन्न मुद्दों को उजागर करते रहे हैं।

उन्होंने कहा, ‘आजकल न्यायपालिका सहित सभी संस्थानों को प्रभावित करने वाला सबसे बड़ा मुद्दा जनता की आंखों में निरंतर विश्वास सुनिश्चित करना है। न्यायपालिका को कानून का शासन बनाए रखने और कार्यपालिका और विधायी ज्यादतियों की जांच करने की अत्यधिक संवैधानिक जिम्मेदारी सौंपी गई है।’ जस्टिस रमण ने कहा, ‘न्याय देना न केवल एक संवैधानिक, बल्कि सामाजिक कर्तव्य भी है। संघर्ष किसी भी समाज के लिए अपरिहार्य है, लेकिन संघर्ष का रचनात्मक समाधान सामाजिक व्यवस्था को बनाए रखने के लिए अनिवार्य है।’

विधियों को आंख बंद करके लागू नहीं कर सकते हैं

उन्होंने कहा, ‘रचनात्मक संघर्ष समाधान केवल एक तकनीकी कार्य नहीं है। विशेष रूप से भारत जैसे देश में, न्यायाधीश नियमों, प्रक्रियाओं और विधियों को आंख बंद करके लागू नहीं कर सकते हैं। आखिरकार, संघर्षों का एक मानवीय चेहरा होता है। हम न्याय प्रदान करने के अपने कर्तव्य के बारे में लगातार जागरूक हैं।’

चीफ जस्टिस ने कहा, ‘कोई भी निर्णय देने से पहले, न्यायाधीशों को कई सामाजिक-आर्थिक कारकों और समाज पर उनके निर्णय के प्रभाव को तौलना होता है।’ न्यायमूर्ति रमण ने कहा कि उनका दृढ़ विश्वास है कि न्यायपालिका को कभी भी केवल कानून लागू करने वाले के रूप में नहीं देखा जाना चाहिए, क्योंकि यह सामाजिक एकीकरण का एक इंजन है।

न्याय करना कोई आसान काम नहीं

न्यायमूर्ति रमण ने कहा कि न्याय करना कोई आसान काम नहीं है और न्यायाधीशों को सामाजिक वास्तविकताओं से अवगत होना चाहिए। उन्होंने पांच दिवसीय टेस्ट मैचों के क्रिकेट के ट्वेंटी-20 तक पहुंचने का हवाला देते हुए कहा, ”हमें बदलती सामाजिक जरूरतों और अपेक्षाओं को ध्यान से देखना होगा। दुनिया बहुत तेजी से आगे बढ़ रही है। हम जीवन के हर क्षेत्र में इस बदलाव को देख रहे हैं।”

फिल्टर कॉफी से, हम इंस्टेंट कॉफी की ओर से बढ़ गए हैं

उन्होंने अन्य पहलुओं का भी उल्लेख करते हुए कहा, ‘फिल्टर कॉफी से, हम ‘इंस्टेंट कॉफी’ की ओर बढ़ गए हैं। ‘इंस्टेंट नूडल्स’ के इस युग में, लोग तत्काल न्याय की उम्मीद करते हैं, लेकिन उन्हें इस बात का एहसास नहीं है कि अगर हम तत्काल न्याय के लिए प्रयास करते हैं तो वास्तविक न्याय को नुकसान होगा।’ उन्होंने कहा कि राष्ट्र की सामाजिक और भौगोलिक विविधता को न्यायपालिका के सभी स्तरों पर प्रतिबिंबित करना चाहिए, क्योंकि व्यापक संभावित प्रतिनिधित्व के साथ, लोगों को लगता है कि यह उनकी अपनी न्यायपालिका है।

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